संगीत क्या है ?
संगीत क्या है ?
सुव्यवस्थित ध्वनि, जो रस की सृष्टि करे, संगीत कहलाती है। गायन, वादन व नृत्य तीनों के समावेश को संगीत कहते हैं। संगीत नाम इन तीनों के एक साथ व्यवहार से पड़ा है। गाना, बजाना और नाचना प्रायः इतने
पुराने है जितना पुराना आदमी है। बजाने और बाजे की कला आदमी ने कुछ बाद में
खोजी-सीखी हो, पर गाने और नाचने का आरंभ तो न केवल हज़ारों बल्कि लाखों वर्ष पहले उसने कर
लिया होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। " गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगतमुच्यते "
'संगीत रत्नाकर' के अनुसार गीतं वाद्य तथा नृत्य त्रयं सगीतमुच्यते - अर्थात् गीत, वाद्य और नृत्य - इन तीनों
का समुच्चय ही संगीत है।
'संगीत' शब्द 'गीत' शब्द में 'सम्' उपसर्ग लगाकर बना है। 'सम्' यानी 'सहित' और 'गीत' यानी 'गान'। 'गान के सहित' अर्थात् अंगभूत क्रियाओं (नृत्य) व वादन के साथ किया हुआ कार्य 'संगीत' कहलाता है।
भारतीय संगीत
प्राचीन काल में भारतीय संगीत के दो रूप प्रचलित हुए-1. मार्गी तथा 2. देशी। कालांतर
में मार्गी संगीत लुप्त होता गया। साथ ही देशी संगीत दो रूपों में विकसित हुआ- (i) शास्त्रीय संगीत
तथा (ii) लोक संगीत।
- शास्त्रीय संगीत शास्त्रों पर आधारित तथा
विद्वानों व कलाकरों के अध्ययन व साधना का प्रतिफल था। यह अत्यंत नियमबद्ध
तथा श्रेष्ठ संगीत था।
- लोक संगीत काल और स्थान के अनुरूप
प्रकृति के स्वच्छन्द वातावरण में स्वाभाविक रूप से पलता हुआ विकसित होता रहा, अतः यह अधिक विविधतापूर्ण
तथा हल्का-फुल्का व चित्ताकर्षक है।
संगीत की उत्पत्ति
भारतीय संगीत की उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है।
वादों का मूल मंत्र है - 'ॐ' (ओऽम्) । (ओऽम्) शब्द में तीन
अक्षर अ, उ तथा म् सम्मिलित हैं, जो क्रमशः ब्रह्मा अर्थात् सृष्टिकर्ता, विष्णु अर्थात् जगत् पालक और महेश अर्थात् संहारक की शक्तियों के द्योतक हैं। इन तीनों अक्षरों को ॠग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद से लिया गया है। संगीत के सात स्वर षड़ज (सा), ॠषभ (र), गांधार (गा) आदि
वास्तव में ऊँ (ओऽम्) या ओंकार के ही अर्न्तविभाग हैं। साथ ही स्वर तथा शब्द की
उत्पत्ति भी ऊँ के गर्भ से ही हुई है। मुख से उच्चारित शब्द ही संगीत में नाद का रूप धारण कर
लेता है। इस प्रकार 'ऊँ' को ही संगीत का जगत माना जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि जो साधक 'ऊँ' की साधना करने
में समर्थ होता है, वही संगीत को यथार्थ रूप में ग्रहण कर सकता है। यदि दार्शनिक दृष्टि से इसका
गूढ़ार्थ निकाला जाय, तो इसका तात्पर्य यही है कि ऊँ अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का एक अंश हमारी आत्मा में निहित है और संगीत उसी आत्मा की आवाज़ है, अंतः संगीत की उत्पत्ति हृदयगत
भावों में ही मानी जाती है।
संगीत का क्रियात्मक रूप(PRACTICAL PHASE)
संगीत का क्रियात्मक रूप वह है, जिसे हम कानों द्वारा सुनते हैं अथवा नेत्रों द्वारा देखते
हैं। दूसरे शब्दों में क्रियात्मक संगीत में गाना, बजाना और नाचना
आता है। गायन और वादन को हम सुनते हैं और नृत्य को देखते हैं। क्रियात्मक रूप में
राग, गीत के प्रकार, आलाप-तान, सरगम, झाला, रेला, टुकड़ा, आमद, गत, मींड आदि की
साधना आती है। संगीत का यह पक्ष बहुत ही महत्त्वपूर्ण है
संगीत का शास्त्र पक्ष (THEORY PHASE)
शास्त्र पक्षशास्त्र पक्ष में संगीत सम्बन्धी विषयों
का अध्ययन करते हैं। इसके दो प्रकार हैं–क्रियात्मक शास्त्र और शुद्ध शास्त्र।
क्रियात्मक शास्त्र में क्रियात्मक संगीत का अध्ययन आता है, जैसे रागों का परिचय, गीत की स्वर-लिपि
लिखना, तान-आलाप, मिलते-जुलते
रागों की तुलना, टुकड़ा, रेला आदि। इस
शास्त्र से क्रियात्मक संगीत में बड़ी सहायता मिलती है। शुद्ध शास्त्र में संगीत, नाद, जाति, आरोह-अवरोह, स्वर, लय, मात्रा, ताल, ख़ाली आदि की परिभाषा, संगीत का इतिहास
आदि का अध्ययन आता है।
संगीत पद्धतियाँ
भारतवर्ष में मुख्य रूप से दो प्रकार का संगीत प्रचार में
है, जिन्हें संगीत की पद्धति कहते हैं। उनके नाम
हैं–उत्तरी अथवा हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति और दक्षिणी अथवा कर्नाटक संगीत पद्धति।
उत्तरी संगीत पद्धतिउत्तरी संगीत पद्धति को हिन्दुस्तानी
संगीत पद्धति भी कहते हैं। यह पद्धति उत्तरी हिन्दुस्तान में–बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, जम्मू-कश्मीर तथा महाराष्ट्र प्रान्तों में प्रचलित हैं।
दक्षिणी संगीत पद्धतिदक्षिणी संगीत पद्धति को कर्नाटक संगीत
पद्धति भी कहते हैं। यह तमिलनाडु, मैसूर, आंध्र प्रदेश आदि दक्षिण के प्रदेशों में प्रचलित हैं। ये
दोनों पद्धतियाँ अलग होते हुए भी इनमें बहुत कुछ समानताऐं है।
संगीत के प्रकार
भारतीय संगीत के मुख्य दो प्रकार हैं–
1. शास्त्रीय संगीत
2. भाव संगीत
शास्त्रीय संगीत उसे कहते हैं, जिसमें नियमित शास्त्र होता है और जिसमें कुछ विशिष्ट
(ख़ास) नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। उदाहरणार्थ, शास्त्रीय संगीत में राग के नियमों का पालन करना पड़ता है, न करने से राग हानि होती है। इसके अतिरिक्त लय-ताल की सीमा
में रहना पड़ता है, गीत का कौन सा प्रकार हम गा रहे हैं, उसका निर्वाह भी उसी प्रकार से होना चाहिए, इत्यादि-इत्यादि।
भाव संगीत में शास्त्रीय संगीत के समान न कोई बन्धन होता है
और न उसका नियमित शास्त्र ही होता है। भाव संगीत का मुख्य और एकमात्र उद्देश्य
कानों को अच्छा लगना है, अत: उसमें कोई बन्धन नहीं रहता-चाहे कोई भी स्वर
प्रयोग किया जाए, चाहे जिस ताल में गाया जाए व आलाप, तान, सरगम, आदि कुछ भी
प्रयोग किया जाए अथवा न प्रयोग किया जाए। भाव संगीत का मुख्य उद्देश्य रंजकता है।
रंजकता के लिए ही कहीं-कहीं शास्त्रीय संगीत का सहारा भी लिया जाता है। भाव संगीत
को सुगम संगीत कहते हैं। भाव संगीत को मुख्य तीन भागों में विभाजित किया जा सकता
है-
- चित्रपट संगीत
- लोक संगीत
- भजन-गीत
चित्रपट संगीतव्यापक अर्थ में जिस किसी गीत का प्रयोग
चित्रपट (सिनेमा) में हुआ हो, उसे चित्रपट
संगीत कहते हैं। बैजू बावरा का आज गावत मन मेरो तथा झनक-झनक पायल बाजे का 'गिरधर गोपाल' दोनों की शैली
शास्त्रीय होते हुए भी ये चित्रपट गीत हैं, क्योंकि इनका
प्रयोग चित्रपट में हो चुका है।
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